Tuesday, 3 October 2017

हवन कुंड और हवन के नियम

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 हवन चाहे वैदिक हो या तांत्रिक उसके लिए हवन कुंड कि भूमि, वेदी का निर्माण एक
आवश्यक अंग होता है| कहा है , कुंड, वेदी और निमंत्रित देवी देवताओं कि तथा पूर्ण सज्जा कि रक्षा करता है, उसे मंडल कहा जाता है| यज्ञ कि भूमि का चुनाव बहुत जरूरी है| उत्तम भूमि --नदियों के किनारे, संगम, देवालय, उद्यान, पर्वत, गुरु ग्रह और ईशान मैं बना हवन कुंड सर्वोत्तम माना गया है| फटी भूमि, केश युक्त और सर्प कि बाम्बी वाली भूमि वर्जित है| हवन कुंड मैं तीन सीढिया होती हैं| इन सीढियो को ''मेखला'' भी कहा जाता है| सबसे ऊपर कि मेखला सफ़ेद [WHITE ] मध्य कि मेखला लाल [RED]और नीचे कि मेखला काले [BLACK ] रंग कि होती है| इन तीन मेखलाओं मैं तीन देवताओं का निवास माना जाता है| उपर विष्णु मध्य मैं ब्रह्मा तथा नीचे शिव का वस् होता है| जब हम आहूतिया डालते हैं तो कुछ सामग्री बाहर गिर जाती है| हवन के उपरांत उस सामग्री को कुछ लोग पुन: हवन कुंड मैं डाल देते हैं, मित्रों! ऐसा कभी नहीं करना चाहिय| कहा गया है ऊपर गिरी सामग्री को छोड़ कर शेष दो मेखलाओं पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती है, इसलिये उसे वरुण देवता को अर्पित कर देना चाहिए अग्नि देवता को नहीं| हाँ, ऊपरकी मेखला पर गिरी सामग्री को पुन: हवन कुंड मैं दल देना चाहये| वैदिक प्रयोग के साथ ही साथ तंत्र मैं भी विभिन्न यंत्र प्रयोग मैं लाये जाते हैं| उनमे से कुछ त्रिकोण होते हैं| तंत्र मार्ग मैं त्रिकोण कुंड का प्रयोग होता है| हवन कुंड अनेक प्रकार के होते हैं जैसे - वृत्ताकार , वर्गा कार, त्रिकोण और अष्ट कोण आदि| सभी प्रकार के यज्ञों, मानव कल्याण से संबंधित सभी प्रकार के हवनों ''मृगी” मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए| हवन का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि किसी भी प्रकार से हवन सामग्री कुंड मैं डाल दी जाये| हवन मैं शास्त्र आज्ञा, आचार्य आज्ञा और गुरु आज्ञा का पालन करना जरूरी होता है| आप इस बात पर विश्वास रखें मेरे करने से कुछ नहीं होगा गुरु करे सो होए| हवन रोग नाशक, ताप नाशक, वातावरण को शुद्ध करने वाला यज्ञ से ओक्सिजन कि मात्रा बढ़ जाती है| हमे यह ज्ञान अपने प्राचीन ग्रंथों और ऋषिओं से प्राप्त होता है |
आहुति के मान से मण्डप-निर्णय होने के पश्चात वेदिका के बाहर तीन प्रकार से क्षेत्र का विभाग करके मध्यभाग में पूर्व आदि दिशाओं को कल्पना करे फिर आठों दिशाओं में- आठ दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं- पूर्व अग्नि, दक्षिण, निर्ऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा ईशान

क्रमशःचतुरस्र, योनि अर्धचन्द्र, त्र्यस्र, वर्तुल, षडस्र, पङ्कज और अष्टास्रकुण्ड की स्थापना सुचारु रूप से करे तथा मध्य में आचार्य कुण्ड वृत्ताकार अथवा चतुरस्र बनाये पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो कुहनी से कनिष्ठा तक के माप का ( फुट इंच) कुण्ड बनाना, एक हजार आहुति में एक हस्तप्रमाण ( फुट इंच) का, एक लक्ष आहुति में चार हाथ का ( फुट), दस लक्ष आहुति में छः हाथ ( फुट) का तथा कोटि आहुति में हाथ का (१२ फुट) अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी र्निदेश है इस विषय में शारदातिलक, स्कन्दपुराण आदि का सामान्य मतभेद भी प्राप्त होता है कुण्ड के निर्माण में अङ्गभूत वात, कण्ठ, मेखला तथा नाभि का प्रमाण भी आहुति एवं कुण्ड की आकृति के आधार से निश्चिम किये जाते हैं इस कार्य में न्यूनाधिकार होने से रोगशोक आदि विघ्न आते हैं अतः केवल सुन्दरता पर ही दृष्टि रख कर शिल्पी के साथ पूर्ण पिरश्रम से शास्त्रानुसार कुण्ड तैयार करवाना चाहिये यदि कुण्ड करने का सार्मथ्य हो, तो सामान्य हवनादि में विद्वान चार अंगुल ऊँचा, अथवा एक अंगुल ऊँचा एक हाथ लम्बा-चौड़ा सुवर्णाकार पीली मिट्टी अथवा वालू-रेती का सुन्दर स्थण्डिल बनाये इसके अतिरिक्त ताम्र के और पीतल के भी यथेच्छ कुण्ड बाजार में प्राप्त होते हैं उनमें प्रायः ऊपर मुख चौड़ा होता है और नीचे क्रमशः छोटा होता है वह भी शास्त्र की दृष्टि से ग्राह्य है नित्य हवन-बलिवैश्व-देव आदि के लिए अनेक विद्वान इन्हें उपयोग में लेते हैं |.................................................................हर-हर महादेव 

विशेष - किसी विशिष्ट समस्या ,तंत्र -मंत्र -किये -कराये -काले जादू -अभिचार ,नकारात्मक ऊर्जा प्रभाव आदि पर परामर्श /समाधान हेतु संपर्क करें -मो. 07408987716 ,समय -सायंकाल 5 से 7 बजे के बीच . 

मन्त्र

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मन्त्र में छन्द, ॠषि, देवता, बीज, कीलक और शक्ति ये मुख्य रूप से छह बातें मानी जाती हैं| वैदिक मन्त्रों में छन्द, ॠषि, और देवता इन तीन बातों का ही उपयोग होता हैं| अवशिष्ट के सहित षड़ंगों का उपयोग तांत्रिक मन्त्रों में होता हैं| शावर मन्त्रों के विषय में –‘अनमिल आखर अर्थ जापू’ और शावर-मन्त्र जाल जिन सिरजा’ आदि पद्यों से स्मरण किया जाता हैं| पौराणिक मन्त्र भाव प्रधान होते हैं, ‘ नमों भगवते वासुदेवाय’ आदि| इन मन्त्रों में क्रिया की गौणता होती हैं| इष्ट रूप की भावना मन से सतत जारी रहने से ही सिद्धि होती हैं| क्रिया की मुख्यत: तांत्रिक मन्त्रों में ही अपेक्षा हैं और वैदिक मंत्रो में दोनों की|
मन्त्र के उच्चारण की रीति छन्द से, मन्त्र तत्व के आविष्कर्ता का परिचय ॠषि से, समस्त इष्ट फल के प्रदान करने बाले देवता का परिज्ञान मन्त्र एवं ग्यान-ध्यान की रीति से करना होता हैं| मन्त्र का मूल तत्व संक्षिप्त रूप बीज में होता हैं| विरोधी शक्ति जो तत्व का विनाश तथा साधक को साधना से हटाती हैं, उसके लिए कीलक का उपयोग होता हैं|
मन्त्र में चैतन्य-शक्ति का संचार शक्ति से होता हैं| मन्त्र साधक को इन रहष्यो का ध्यान रखकर, मन्त्र साधना में सलग्न होना चाहिये| इसके अतिरिक्त विशिष्ट भावों की अभिव्यक्ति के लिए अर्न्मात्रृकान्यास, बहिर्मात्रृकान्यास, षोढ़ान्यास, प्रपंचन्यास, भुवनन्यास, देवन्यास, शक्तिन्यास, श्रीकंठन्यास, आदि कहे गये हैं| अन्तर्याग बहिर्याग द्वारा देवता का पूजन, तर्पण, होम, पुनश्चरण, संस्कार आदि के द्वारा मन्त्र शीघ्र सिद्ध होता हैं| इन उपायों से मन्त्र चैतन्य होकर, देवता का साक्षात्कार करा देता हैं| बिना मन्त्र चैतन्य हुये देवता का स्वरूप ज्ञात नहीं होता| परब्रह्म परमात्मा ही देवता के रूप में अपनी ग्यान शक्ति द्वारा व्यक्त होता हैं|.....................................................हर-हर महादेव 

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पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा

हिन्दू धर्म में पूजा स्थल पर शंख रखने की परंपरा 
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शंख को सनातन धर्म का प्रतीक माना जाता है।धार्मिक शास्त्रों के अनुसार शंख बजाने से भूत-प्रेत, अज्ञान, रोग, दुराचार, पाप, दुषित विचार और गरीबी का नाश होता है। शंख बजाने की परंपरा प्राचीन काल से चली रही है। महाभारत काल में श्रीकृष्ण द्वारा कई बार अपना पंचजन्य शंख बजाया गया था। आधुनिक विज्ञान के अनुसार शंख बजाने से हमारे फेफड़ों का व्यायाम होता है, श्वास संबंधी रोगों से लडऩे की शक्ति मिलती है। पूजा के समय शंख में भरकर रखे गए जल को सभी पर छिड़का जाता है जिससे शंख के जल में कीटाणुओं को नष्ट करने की अद्भूत शक्ति होती है। साथ ही शंख में रखा पानी पीना स्वास्थ्य और हमारी हड्डियों, दांतों के लिए बहुत लाभदायक है। शंख में कैल्शियम, फास्फोरस और गंधक के गुण होते हैं जो उसमें रखे जल में जाते हैं|…………………………………………………..हर-हर महादेव

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