Tuesday, 3 October 2017

कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ महाप्रयोग

 :::::::::::::::::कुंजिका स्तोत्र’ और बीसा यन्त्र’  अनुष्ठान :::::::::::::::::::
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बीस यन्त्र और कुंजिका स्तोत्र का संयोग कर अनुष्ठान संपन्न करने से बीस यन्त्र के लाभ बढ़ जाते हैं |इस हेतु  चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें।
यन्त्र निर्माण और प्राण-प्रतिष्ठा
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किसी अच्छे शुभ मुहूर्त में अनुष्ठान संपन्न करें |,रविपुष्य योग अथवा गुरु-पुष्य योग अगर मिले तो सर्वोत्तम है |यदि यह न मिले तो कम से कम यन्त्र निर्माण अवश्य किसी अमृत सिद्धि योग में करवाकर अनुष्ठान संपन्न करे | अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ। अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नहीं) रखें। थाली में पहले से बनवाए हुए चौकोर रजत-पत्र अथवा भोजपत्र को रखें। रजत-पत्र अथवा भोजपत्र पर अष्ट-गन्ध की स्याही से अनार या बिल्व-वृक्ष की टहनी की लेखनी के द्वारा यन्त्र लिखें। इस यन्त्र को उत्तम मुहूर्त में खुदवाकर बनवाया जा सकता है |यन्त्र निर्माण दिए चित्र के अनुसार करें या करवाएं |यदि यन्त्र खुदवाकर बनवाया गया है तो अग्नि और अपघात दोष निवारण क्रिया भी प्राण प्रतिष्ठा में होगी |यह यन्त्र अगर भोजपत्र पर बनाया जा रहा है तो अग्निउत्तरण क्रिया नहीं होगी |
अब यन्त्र’ की प्राण-प्रतिष्ठा करें। यथा- बाँयाँ हाथ हृदय पर रखें और दाएँ हाथ में पुष्प लेकर उससे यन्त्र’ को छुएँ और निम्न प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र को पढ़े -
आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम प्राणाः इह प्राणाः, आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम सर्व इन्द्रियाणि इह सर्व इन्द्रयाणि, आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम वाङ्-मनश्चक्षु-श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राण इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।”
यन्त्र’ पूजन:
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इसके बाद रजत-यन्त्र’ के नीचे थाली पर एक पुष्प आसन के रूप में रखकर यन्त्र’ को साक्षात् भगवती चण्डी स्वरूप मानकर पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करें। प्रत्येक उपचार के साथ समर्पयामि चन्डी यन्त्रे नमः’ वाक्य का उच्चारण करें। यथा-
1. पाद्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।  2. अध्र्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
3. आचमनं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 4. गंगाजलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
5. दुग्धं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 6. घृतं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 
7. तरू-पुष्पं (शहद) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 8. इक्षु-क्षारं (चीनी) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
9. पंचामृतं (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः
10. गन्धम् (चन्दन) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 11. अक्षतान् समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
12 पुष्प-माला समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।  13. मिष्ठान्न-द्रव्यं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
14. धूपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 15. दीपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 
16. पूगी फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 17 फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 
18. दक्षिणा समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 19. आरतीं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
तदन्तर यन्त्र पर पुष्प चढ़ाकर निम्न मन्त्र बोलें-
पुष्पे देवा प्रसीदन्ति, पुष्पे देवाश्च संस्थिताः।।
अब सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ का पाठ कर यन्त्र को जागृत करें। यथा-
।।शिव उवाच।।

श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्। येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।।
कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं रहस्यकम्। न सूक्तं नापि ध्यानं , न्यासो वार्चनम्।।
कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्। अति गुह्यतरं देवि ! देवानामपि दुलर्भम्।।
मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्। पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।।
मन्त्र ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।
नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि। नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1
नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै , निशुम्भासुर घातिनि। जाग्रतं हि महादेवि जप ! सिद्धिं कुरूष्व मे।।2
ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका। क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3
चामुण्डा चण्डघाती , यैकारी वरदायिनी। विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा। क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ऐं रक्ष सर्वदा।।5
ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी। क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6
ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी। भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव। आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय
त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा। पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः। सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे। अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि ! हीनां सप्तशती पठेत्। न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।

फिर यन्त्र की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए यह मन्त्र बोलें-
यानि कानि पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च। तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।।

प्रदक्षिणा करने के बाद यन्त्र को पुनः नमस्कार करते हुए यह मन्त्र पढ़े-
एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि। सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।। अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।।
अन्त में हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना करें। यथा-
अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।।
आवाहनं जानामि, जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।।
मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि ! यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।।
अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्। या गतिः समवाप्नोति, तां ब्रह्मादयः सुराः।।
सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके ! इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।।
अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्। तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि !
कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे ! गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि !
गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।

उपरोक्त पद्धति और विधि सामान्य जानकारी के उद्देश्य से दी गयी है |क्रिया -अनुष्ठान संपन्न करने के पूर्व किसी योग्य गुरु अथवा साधक से परामर्श कर सम्पूर्ण विधि और प्रयोग ,मंत्र सहित शुद्ध रूप से समझ लें ,तभी प्रयोग करें ,,क्योकि दुर्गा एक उग्र शक्ति है ,जहाँ गलतियों पर समस्या उत्पन्न हो सकती है |प्रयोग सफलता पूर्वक संपन्न होने पर व्यक्ति को सुख-संमृद्धि-सुरक्षा-सफलता प्राप्त होती है |.....................................................................हर-हर महादेव 

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हवन कुंड और हवन के नियम

::::::::::::::::हवन कुंड और हवन के नियम :::::::::::::::::
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 हवन चाहे वैदिक हो या तांत्रिक उसके लिए हवन कुंड कि भूमि, वेदी का निर्माण एक
आवश्यक अंग होता है| कहा है , कुंड, वेदी और निमंत्रित देवी देवताओं कि तथा पूर्ण सज्जा कि रक्षा करता है, उसे मंडल कहा जाता है| यज्ञ कि भूमि का चुनाव बहुत जरूरी है| उत्तम भूमि --नदियों के किनारे, संगम, देवालय, उद्यान, पर्वत, गुरु ग्रह और ईशान मैं बना हवन कुंड सर्वोत्तम माना गया है| फटी भूमि, केश युक्त और सर्प कि बाम्बी वाली भूमि वर्जित है| हवन कुंड मैं तीन सीढिया होती हैं| इन सीढियो को ''मेखला'' भी कहा जाता है| सबसे ऊपर कि मेखला सफ़ेद [WHITE ] मध्य कि मेखला लाल [RED]और नीचे कि मेखला काले [BLACK ] रंग कि होती है| इन तीन मेखलाओं मैं तीन देवताओं का निवास माना जाता है| उपर विष्णु मध्य मैं ब्रह्मा तथा नीचे शिव का वस् होता है| जब हम आहूतिया डालते हैं तो कुछ सामग्री बाहर गिर जाती है| हवन के उपरांत उस सामग्री को कुछ लोग पुन: हवन कुंड मैं डाल देते हैं, मित्रों! ऐसा कभी नहीं करना चाहिय| कहा गया है ऊपर गिरी सामग्री को छोड़ कर शेष दो मेखलाओं पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती है, इसलिये उसे वरुण देवता को अर्पित कर देना चाहिए अग्नि देवता को नहीं| हाँ, ऊपरकी मेखला पर गिरी सामग्री को पुन: हवन कुंड मैं दल देना चाहये| वैदिक प्रयोग के साथ ही साथ तंत्र मैं भी विभिन्न यंत्र प्रयोग मैं लाये जाते हैं| उनमे से कुछ त्रिकोण होते हैं| तंत्र मार्ग मैं त्रिकोण कुंड का प्रयोग होता है| हवन कुंड अनेक प्रकार के होते हैं जैसे - वृत्ताकार , वर्गा कार, त्रिकोण और अष्ट कोण आदि| सभी प्रकार के यज्ञों, मानव कल्याण से संबंधित सभी प्रकार के हवनों ''मृगी” मुद्रा का प्रयोग करना चाहिए| हवन का यह अर्थ बिलकुल नहीं है कि किसी भी प्रकार से हवन सामग्री कुंड मैं डाल दी जाये| हवन मैं शास्त्र आज्ञा, आचार्य आज्ञा और गुरु आज्ञा का पालन करना जरूरी होता है| आप इस बात पर विश्वास रखें मेरे करने से कुछ नहीं होगा गुरु करे सो होए| हवन रोग नाशक, ताप नाशक, वातावरण को शुद्ध करने वाला यज्ञ से ओक्सिजन कि मात्रा बढ़ जाती है| हमे यह ज्ञान अपने प्राचीन ग्रंथों और ऋषिओं से प्राप्त होता है |
आहुति के मान से मण्डप-निर्णय होने के पश्चात वेदिका के बाहर तीन प्रकार से क्षेत्र का विभाग करके मध्यभाग में पूर्व आदि दिशाओं को कल्पना करे फिर आठों दिशाओं में- आठ दिशाओं के नाम इस प्रकार हैं- पूर्व अग्नि, दक्षिण, निर्ऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा ईशान

क्रमशःचतुरस्र, योनि अर्धचन्द्र, त्र्यस्र, वर्तुल, षडस्र, पङ्कज और अष्टास्रकुण्ड की स्थापना सुचारु रूप से करे तथा मध्य में आचार्य कुण्ड वृत्ताकार अथवा चतुरस्र बनाये पचास अथवा सौ आहुति देनी हो तो कुहनी से कनिष्ठा तक के माप का ( फुट इंच) कुण्ड बनाना, एक हजार आहुति में एक हस्तप्रमाण ( फुट इंच) का, एक लक्ष आहुति में चार हाथ का ( फुट), दस लक्ष आहुति में छः हाथ ( फुट) का तथा कोटि आहुति में हाथ का (१२ फुट) अथवा सोलह हाथ का कुण्ड बनाना चाहिये भविष्योत्तर पुराण में पचास आहुति के लिये मुष्टिमात्र का भी र्निदेश है इस विषय में शारदातिलक, स्कन्दपुराण आदि का सामान्य मतभेद भी प्राप्त होता है कुण्ड के निर्माण में अङ्गभूत वात, कण्ठ, मेखला तथा नाभि का प्रमाण भी आहुति एवं कुण्ड की आकृति के आधार से निश्चिम किये जाते हैं इस कार्य में न्यूनाधिकार होने से रोगशोक आदि विघ्न आते हैं अतः केवल सुन्दरता पर ही दृष्टि रख कर शिल्पी के साथ पूर्ण पिरश्रम से शास्त्रानुसार कुण्ड तैयार करवाना चाहिये यदि कुण्ड करने का सार्मथ्य हो, तो सामान्य हवनादि में विद्वान चार अंगुल ऊँचा, अथवा एक अंगुल ऊँचा एक हाथ लम्बा-चौड़ा सुवर्णाकार पीली मिट्टी अथवा वालू-रेती का सुन्दर स्थण्डिल बनाये इसके अतिरिक्त ताम्र के और पीतल के भी यथेच्छ कुण्ड बाजार में प्राप्त होते हैं उनमें प्रायः ऊपर मुख चौड़ा होता है और नीचे क्रमशः छोटा होता है वह भी शास्त्र की दृष्टि से ग्राह्य है नित्य हवन-बलिवैश्व-देव आदि के लिए अनेक विद्वान इन्हें उपयोग में लेते हैं |.................................................................हर-हर महादेव 

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