Monday, 4 September 2017

ध्यान :: ध्यान के अनुभव :: ध्यान की प्रक्रिया और ध्यान के लाभ = [[ भाग -५ ]

क्या अनुभव हो सकता है ध्यान में [भाग -२]
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साधकों को ध्यान के दौरान कुछ एक जैसे एवं कुछ अलग प्रकार के अनुभव होते हैं.|हर साधक की अनुभूतियाँ भिन्न होती हैं |अलग साधक को अलग प्रकार का अनुभव होता है |इन अनुभवों के आधार पर उनकी साधना की प्रकृति और प्रगति मालूम होती है |साधना के विघ्न-बाधाओं का पता चलता है | साधना में ध्यान में होने वाले कुछ अनुभव निम्न प्रकार हो सकते हैं |
  ध्यानावस्था की उच्चता पर अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के मन की बात जान लेना या दूर स्थित व्यक्ति क्या कर रहा है (दु:खी है, रो रहा है, आनंद मना रहा है, हमें याद कर रहा है, कही जा रहा है या रहा है वगैरह) इसका अभ्यास हो जाना और सत्यता जांचने के लिए उस व्यक्ति से उस समय बात करने पर उस आभास का सही निकलना, यह सब दूसरों के साथ अपने चित्त को जोड़ देने पर होता है.|यद्यपि यह साधना में बाधा उत्पन्न करने वाला है क्र्योकि दूसरों के द्वारा इस प्रकार साधक का मन अपनी और खींचा जाता है और ईश्वर प्राप्ति के अभ्यास के लिए कम समय मिलता है और अभ्यास कम हो पाता है जिससे साधना धीरे -धीरे क्षीण हो जाती है. इसलिए इससे बचना चाहिए|. दूसरों के विषय में सोचना छोड़ें. अपनी साधना की और ध्यान दें. इससे कुछ ही दिनों में यह प्रतिभा अंतर्मुखी हो जाती है और साधना पुनः आगे बढती है|
 ध्यानावस्था की गहन अवस्था में कुंडलिनी जागरण भी हो सकता है और साधक को कुंडलिनी जागरण का अनुभव भी हो सकता है | कुण्डलिनी वह दिव्य शक्ति है| जिससे सब जीव जीवन धारण करते हैं, समस्त कार्य करते हैं और फिर परमात्मा में लीन हो जाते हैं. अर्थात यह ईश्वर की साक्षात् शक्ति है.| यह कुंडलिनी शक्ति सर्प की तरह साढ़े तीन फेरे लेकर शरीर के सबसे नीचे के चक्र मूलाधार चक्र में स्थित होती है.| जब तक यह इस प्रकार नीचे रहती है तब तक हम सांसारिक विषयों की ओर भागते रहते हैं|. परन्तु जब यह जाग्रत होती है तो उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि कोई सर्पिलाकार तरंग है जिसका एक छोर मूलाधार चक्र पर जुड़ा हुआ है और दूसरा छोर रीढ़ की हड्डी के चारों तरफ घूमता हुआ ऊपर उठ रहा है|. यह बड़ा ही दिव्य अनुभव होता है.| यह छोर गति करता हुआ किसी भी चक्र पर रुक सकता है.| जब कुण्डलिनी जाग्रत होने लगती है तो पहले मूलाधार चक्र में स्पंदन का अनुभव होने लगता है|. यह स्पंदन लगभग वैसा ही होता है जैसे हमारा कोई अंग फड़कता है.| फिर वह कुण्डलिनी तेजी से ऊपर उठती है और किसी एक चक्र पर जाकर रुक जाती है.| जिस चक्र पर जाकर वह रूकती है उसको उससे नीचे के चक्रों को वह स्वच्छ कर देती है,| यानि उनमें स्थित नकारात्मक उर्जा को नष्ट कर देती है.| इस प्रकार कुण्डलिनी जाग्रत होने पर हम सांसारिक विषय भोगों से विरक्त भी हो सकते हैं और ईश्वर प्राप्ति की ओर हमारा मन लग सकता है.| इसके अतिरिक्त हमारी कार्यक्षमता कई गुना बढ जाती है|. कठिन कार्य भी हम शीघ्रता से कर लेते हैं.| कुण्डलिनी जागरण के सामान्य लक्षणों में ध्यान में ईष्ट देव का दिखाई देना या हूं हूं या गर्जना के शब्द करना | गेंद की तरह एक ही स्थान पर फुदकना,| गर्दन का भाग ऊंचा उठ जाना,| सर में चोटी रखने की जगह यानि सहस्रार चक्र पर चींटियाँ चलने जैसा लगना,| कपाल ऊपर की तरफ तेजी से खिंच रहा है ऐसा लगना,| मुंह का पूरा खुलना और चेहरे की मांसपेशियों का ऊपर खींचना और ऐसा लगना कि कुछ है जो ऊपर जाने की कोशिश कर रहा है ,आदि हो सकते हैं | 
ध्यान में कभी ऐसे लगता है जैसे पूरी पृथ्वी गोद में रखी हुई है या शरीर की लम्बाई बदती जा रही है और अनंत हो गई है, या शरीर के नीचे का हिस्सा लम्बा होता जा रहा है और पूरी पृथ्वी में व्याप्त हो गया है, शरीर के कुछ अंग जैसे गर्दन का पूरा पीछे की और घूम जाना, शरीर का रूई की तरह हल्का लगना, ये सब ध्यान के समय कुण्डलिनी जागरण के कारण अलग-अलग चक्रों की प्रतिभाएं प्रकट होने के कारण होता है. परन्तु साधक को इनका उपयोग नहीं करना चाहिए, केवल परमात्मा की प्राप्ति को ही लक्ष्य मानकर ध्यान करते रहना चाहिए. इन प्रतिभाओं पर ध्यान देने से ये पुनः अंतर्मुखी हो जाती हैं |.

 कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे किसी हलकी वास्तु को उठाने के लिए जैसे ही अपना हाथ उसके पास ले जाते हैं तो वह वास्तु खिसक कर दूर चली जाती है,| उस समय साधक को अपनी अँगुलियों में स्पंदन (झन-झन) का सा अनुभव होता है. |साधक आश्चर्यचकित होकर बार-बार इसे करके देखता है,| वह परीक्षण करने लगता है कि देखें कि यह दुबारा भी होता है क्या. और फिर वही घटना घटित होती है.| तब साधक यह सोचता है कि अवश्य ही यह कोई दिव्य घटना उसके साथ घटित हो रही है. |वास्तव में यह साधक के शरीर में दिव्य उर्जा (कुंडलिनी, मंत्र जप, नाम जप आदि से उत्पन्न उर्जा) के अधिक प्रवाह के कारण होता है.| वह दिव्य उर्जा जब अँगुलियों के आगे एकत्र होकर घनीभूत होती है तब इस प्रकार की घटना घटित हो जाती है| कई बार साधकों को ऐसा अनुभव होता है कि वे अनजाने में किसी रोगी व्यक्ति के रोग वाले अंग पर कुछ समय तक हाथ रखते हैं और वह रोग नष्ट हो जाता है. |तब सभी लोग इसे आश्चर्य की तरह देखते हैं.| वास्तव में यह साधक के शरीर से प्रवाहित होने वाली दिव्य उर्जा के प्रभाव से होता है.| रोग का अर्थ है उर्जा के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हो जाना.| साधक के संपर्क से रोगी की वह रुकी हुई उर्जा पुनः प्रवाहित होने लगती है, और वह स्वस्थ हो जाता है.| मंत्र शक्ति रेकी चिकित्सा पद्धति का भी यही आधार है कि मंत्र एवं भावना ध्यान द्वारा रोगी की उर्जा के प्रवाह को संतुलित करने की तीव्र भावना करना.|जिसे किसी उच्च शक्ति के मंत्र सिद्ध हैं अथवा जो ध्यानावस्था की एकाग्रता की स्थिति प्राप्त कर चूका है वह अपने हाथ की अंजलि बनाकर उल्टा करके अपने या अन्य व्यक्ति के शरीर के किसी भाग पर बिना स्पर्श के थोडा ऊपर रखें. फिर किसी मंत्र का जप करते हुए अपनी अंजलि के नीचे के स्थान पर ध्यान केन्द्रित करें और ऐसी भावना करें कि मंत्र जप से उत्पन्न उर्जा दुसरे व्यक्ति के शरीर में जा रही है.| कुछ ही देर में आपको कुछ झन झन या गरमी का अनुभव उस स्थान पर होगा. इसे ही दिव्य उर्जा कहते हैं. यह मंत्र जाग्रति का लक्षण है.| ................................................................हर-हर महादेव 

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